आखिर क्या है, किसान विरुद्ध?
आखिर क्या है,
बाध्यताएं, किसान-विरुद्ध,
नए किसान कानूनों में,
जिससे तथाकथित, मैं दुहरा दूं, तथाकथित,
किसान आंदोलित हैं?
वैकल्पिक कानून?
प्रधान मंत्री नें इसे वैकल्पिक कानून बताया। उन्हें बताना पड़ा, यही आश्चर्य की बात है। यानी ,जो स्वयं स्पष्ट है,वो भी बताना पड़े, वो भी संसद के पटल से, प्रधान मंत्री को? और बाबजूद इसके, टी वी डिबेट में, संदीप चौधरी जैसे न्यूज़ 24 के एंकर की भौंहें तने, कि पहली बार सुना कि कानून वैकल्पिक भी हो सकता है।
अफसोस, देश बेवकूफों की कैसी जमात को झेल रहा है।
विकल्प का सार।
पराली मामले में सहमती के बाद, किसी एक प्रावधान का उल्लेख करें, जिसमें किसानों के लिए किसी भी प्रकार की कैसी भी बाध्यता हो।
कोई बाध्यता किसी के लिए है, तो वो किसान के पक्ष में और दूसरे पक्ष (जो किसान नहीं) के लिए है। और सारा विकल्प किसानों के पक्ष में है।
कॉन्ट्रैक्ट फमिंग।
कहते हैं कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग किसान विरोधी है।
ऐसा क्या?
तो कानून तो किसान को कॉन्ट्रैक्ट करने के लिए बाध्य नहीं करता, मात्र विकल्प देता।
इसे सब समझते हैं, बेवकूफों और षड्यंत्रकारियों या आंदोलन जीवियों के सिवा।
भंडारण सीमा।
कहते हैं भंडारण सीमा की बाध्यता जमाखोरों के लिए वरदान साबित होगा, किसानों के लिए अभिशाप। अभिशाप क्यों भाई? बेचना यदि किसान का परमाधिकार है तो फिर खरीदार चाहे जमाखोर हो या मुफ्तखोर, निर्भर तो किसान पर करता है कि बेचने के विकल्प का प्रयोग वो करता है या नहीं। यदि खरीदार पक्ष पर भंडारण की बाध्यता लगा दी जाय तो प्रभावित डिमांड होगा यानी बाजार भाव गिरेगा जो किसान विरोधी हुआ। भंडारण सीमा का हटना यानी डिमाण्ड में वृद्धि, यानी अधिक भाव जो किसान के पक्ष में है। फिर भी, बेचना या नहीं बेचना, किसान का विकल्प है, खरीदार का नहीं।
कानूनों में सारे प्रावधान, किसान को विकल्प देते हैं, फिर भी बेवकूफों और शातिरों का सवाल खड़ा है, कि इन कानूनों को वैकल्पिक क्यों बताया प्रधान मंत्री ने।
न्यूनतम समर्थन मूल्य।
बेवकूफ यह भी मांग कर रहे हैं कि न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी जामा पहनाया जाय।
यानी, न्यूनतम समर्थन मूल्य के नीचे की ख़रीदगी कानूनन अपराध!
वाह भई।
में खरीदार, किसान विक्रेता।
न्यूनतम समर्थन मूल्य 2,000/-.
बाजार भाव 1,500/-.
मुझे 2,000/- में नहीं खरीदना। विक्रेता 1,500/- में बेचने को तैयार।
अब क्या होगा?
किसान का माल किसान के घर, खरीदार अपने घर। आखिर व्यापारी किसी और भी सामग्री की खरीद बिक्री में इन्वेस्ट करने का जब विकल्प रखता है तो वो न्यूनतम समर्थन मूल्य संबंधित बाध्यता के पचड़े में क्यों पड़ेगा? फलस्वरूप किसानों को ही वैसे प्रावधानों से पीछा छुड़ाने की मशक्कत करनी पड़ेगी।
वैसे, न्यूनतम समर्थन मूल्य, इन कानूनों से सरासर भिन्न मुद्दा है। इन कानूनों से इसका कोई लेना देना है नहीं। सरकारी स्पष्टीकरण के बाबजूद यदि आंदोलनकारियों के लिए यह एक मुद्दा है तो रहे, किन्तु कृषि कानूनों से अलग। ये कानून रहें या जाएं, न्यूनतम समर्थन मूल्य का मुद्दा जहाँ का तहाँ बना रहेगा। अतः इसका कृषि कानूनों से जोड़ा जाना, एक छलावा मात्र है।