Monday, 30 May 2016




होगा न ! सवाल जवाब !
उस आइन्स्टायन की औलाद से !

प्रधान अध्यापक और परीक्षा नियंत्रक मुँह की खाये, एक बालक के हाथ, वो भी एक उस शिक्षक के मौजूदगी में जिसे डाँट फटकार के अलावा कहा गया था कि उसे डीमोट कर दिया गया , शिक्षक से शिक्षार्थी.
इस एपिसोड को बालक भूलेगा क्या, उसे तो यादगाश्त में रखने लायक हुआ कुछ ऐसा एहसास ही नहीं था. यह एहसास लौटा, या ये कहिये कि लौटाया गया, जब प्रधान अध्यापक कुछ दिन के बाद क्लास में आये और सारी कहानी का ज़िक्र विद्यार्थियों से किया, तालियों की गड़गड़ाहट के बीच, उस बालक के लिए तारीफ़ का पुल बाँधते हुए.
लेकिन परीक्षा नियंत्रक अचम्भित थे, जिन्हें उस दिन की घटना अपमान का ऐसा दंश लगा जो सर्प दंश से कम नहीं था. तो उन्होंने पूछ दिया प्रधान अध्यापक से कि सर आपने तो तालियाँ बजवा दी, और कल एक  जलसा भी रख दिया, उस शैतान की खला को महिमा मंडित करने.
वाह , क्या समझ है आपकी, प्रधान अध्यापक ड़पट कर बोले. वहाँ न सवाल जवाब होगा उस आइन्स्टायन की औलाद से !

(आगे और )
पिछली कड़ी पीछे!
Gandhi-Nehru
Films at box office, politics at......
Films and politics have several things in common. Bollywood has demonstrated it too well in last few decades. One that is yet to strike the imagination of a film maker is its respective cause and effect cycle.
Deewar, Sholay, and movies of that genre discovered what the audience relished. But the class that Kagaz Ke Phool,  Mera Naam Joker , Amrapali, Shaan, etc. belonged to, were consigned to dumping ground, never to be retried despite the quality and value inherent therein.
Admiration is thus an index which gets recycled in more accentuated form.
Same thing happens in politics. Irrespective of the stuff, whether rubbish or exotic, which a leader playing to the gallery , offers to get popular public acclaim, assumes the form of future political course on which rut the state would either surge suffer.
India is a case in point. In past six decades or more, we have withstood imbecile admiration of leaders' acts of little value. We have over-rated a Gandhi as being a Mahatma, without defining what is meant by a Mahatma in a land where we had so many that no implied definitions are at all called for. Swami Vivekanand  , Ramkrishna or Raman Maharishi are not called Mahatma, but Gandhi is so called, because perhaps Rabindranath Tagore gave Gandhi this prefix in reciprocation of Gandhi giving him 'Gurudev'.
There is nothing wrong in giving credit to Gandhi, Nehru or any one downward , what is wrong is that public psyche is fragile, it picks up wrong signals that often interdicts right perception to hold the field while the wrong one rules the roost. What a popular leader said, even though in misconception, becomes a guideline for future.
India began to laud Gandhi and Nehru, may be still it does.
Just refer to one single prescription that either Gandhi or any contemporary leader gave , worth following which produced a result that India may be proud of.
If an answer is offered, I may tell about the illusion concomitant or hidden therein . But I , for one, know that no one would dare spell out a word , but if one ventures, a non-response would accost as soon as a question is put up.
Be that Atal or Namo, they may be credited or discredited for either success or failure, but to either berate or over-rate them as we have done in case of Gandhis - Nehrus etc, would be retrogressive . Much retrogression India continues to endure is due to the above said conditioning from which freedom is more expedient than it was that from the British Rule from which freedom would have come by default even if Gandhi wasn't there, like it happened in case of numerous colonial rule. Isn't it?

भागवत गीता - एक अध्याय सम्पूर्ण जीवन का !
१-६
टेढ़ी खीर।
भारत देश है ज्ञानियों का। इसकी तो मिट्टी में ज्ञान बसती है। ऐसा कहने सोचने वालों की कमी है क्या?
नहीं न!
और देखिये, यही ज्ञानी प्रबुद्ध हैं जिनका सोचना है कि श्रीमद्भागवत गीता ग्रन्थ तो महान है, अनुकरणीय भी है, पूज्यनीय भी, लेकिन है टेढ़ी खीर।
ज्ञानियों से विस्मित होकर एक याचक नें पुछा कि क्या गीता श्रोत्र ग्रन्थ है या कुंजिका? याचक विद्यार्थी होने के नाते कुंजिका शब्द का प्रयोग कर रहा था। voluminous text book का संक्षिप्त प्रारूप को कुंजिका कहते है, जिससे परीक्षार्थी सस्ती और टिकाऊ ज्ञान अर्जित कर लेते हैं। किन्तु ज्ञान की रेटिंग में इसे निकृष्ट माना जाता है।
इसी कारण, प्रश्नकर्ता से सारे ज्ञानी-प्रबुद्ध गुस्से में उसे भगा देते, उत्तर दिये बिना।
यही प्रश्न उसने एक दिन एक संत से पुछा, तब उसे मिला अपना उत्तर।
(आगे और.......)

उनका भगवान भला करें 
संत नें भगवतगीता को सरल भाषा में समझने के लिए एक श्लोक पढ़ा जिसे युवक ध्यान लगा कर सुन रहा था:-
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥
संत ने पुछा, समझे?
युवक बोला, कुछ भी नहीं समझ।
संत ने कहा, तो सुनो इसका आशय, और उसके बाद धाराप्रवाह बोलते गए, आधे घंटे, इस तरह:-
असद ख्यि लक्जग ओयुवब क्कुग्गूओ ब्सीगजय म्ब्वकन क्खगफ ववह ब्जंगफ जसफग यत्व्ह् वफहज ...............
आधे घंटे के बाद युवक को यह पता नहीं था कि वह होश में है या बेहोश। संत के शिष्यों नें उसकी यह अवस्था देखी, तो उसे ठंडा पानी पिलाया और कुछ देर पंखे में लिटा दिया।
जब युवक कुछ स्थिर हुआ तो उसे पुनः संत के सामने बिठा दिया गया, पर अब वो शांत बैठा था मनो उसके सारे प्रश्नों का समाधान तो मिला नहीं किन्तु सारे प्रश्न ही दिमाग से गायब हो गए, पूछने के लिए जैसे बचा ही न हो, कुछ भी।
अब समय था उलटा। प्रश्नकर्ता थे संत, उत्तर मांग रहे थे उसी याचक से जो खुद भ्रमित था।
संत नें पुछा श्लोक अब हलका लग रहा या भारी?
युवक ने बोला, भारी? अब तो भारी शब्द का भी वजन हलका लग रहा है। पहले तो ऐसा था कि संस्कृत नहीं समझ रहा था, हिंदी रूपांतरण ही काफी होता। किन्तु आपके व्याख्यान के बाद लग रहा है कि समझने के लिए जिस मशीन को दिमाग कहते हैं, वही कहीं गायब हो गया, माथा सुन्न हो गया।
तुम और तुम्हारे जैसे इसी लायक है, संत ने कहा, यह समझाते हुए कि गीता खुद ज्ञान का शार्ट नोट है, जिसे युद्ध क्षेत्र में यानी आपादकाल में pre-existing tenets को आसान बना कर, संक्षेप में दिया था, तुम्हारे जैसे विद्वान से दिखने वाले ऐसे व्यक्ति को जो सिर्फ मूर्ख ही नहीं, बल्कि था पूर्णतः भ्रमित , विक्षिप्त, विस्मित, ..............
तो अब बताओ, जो शार्ट नोट्स कुंजिका, खुद भगवान नें वाचा , उसका शार्ट नोट्स जो ढूँढ़ते हैं या इस सम्बन्ध में मार्ग दर्शन ढूँढ़ते हैं या यह सोचते, सुनते ,बोलते , पूछते हैं कि गीत क्या टेढ़ी खीर, उनका भगवान भला करे।
   
3
स्कूल में भागवत गीता पढाई जाती थी।
परीक्षा मौखिक होती थी। प्रश्न पुछा गया, गीता में कितने अध्याय?
एक जोड़ अठारह भाग दो बराबर साढ़े नो।
शिक्षक ने बिगड़ कर पुछा, तुमसे क्या गणित पुछा जा रहा जो औसत निकाल रहे?
जवाब आया, नहीं सर, क्षमा करें तो कुछ कहूँ।
बोलो, शिक्षक ने बोला।
विद्यार्थी बोला, सर, भगवान नें जब अर्जुन से बोला था तब तो अध्याय एक ही था, अठारह तो योग बताये थे, हर योग को पब्लिशर/प्रकाशक नें अध्यायों में बाट दिया, व्यवहारिकता को ध्यान में रख कर।
तो सर ,यदि मैं सिर्फ एक बोलता तो आप फेल कर देते, अठारह कहता तो भगवान, इसी लिए सारे पत्ते खोल कर रख दिए, विद्यार्थी नें भोली आवाज़ में हाथ जोड़ कर उत्तर दिया।
शिक्षक बायीं हाथ से सर खुजला रहे थे, दायें से मार्क शीट लिख रहे थे,
10/10- examinee better than examiner!
Examinee is better than the examiner?
परीक्षा नियंत्रक को यह बात पची नहीं, Examinee is better than the examiner? ये कौन दूसरा पैदा हो गया डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद ? उन्होंने परीक्षक को तुरंत तलब किया और पूछा कि ये क्या लिख दिया? परीक्षक नें विद्यार्थी को मेधावी बताया और अनुरोध किया कि नियंत्रक भी ख़ुद साक्षात्कार कर के परीक्षा ले लें.
नियंत्रक कुछ सकपका गये, क्योंकि वे हिन्दू धर्मलम्भी नहीं थे और न ही उन्हें गीता के विषय में प्रश्न पूछने लायक ज्ञान नहीं था. तो निदान उन्होंने ऐसे निकला कि परीक्षार्थी को बुलाया और परीक्षक समेत उसे प्रधान अध्यापक के पास ले गये और अपना पल्ला झाड़ कर सारी बातें उनके समक्ष रख दिया.
प्रधान अध्यापक बड़े भारी पूजेरी थे, उनकी ललाट गहरे चंदन के टीके से शोभायमान रहती थी.
उन्होंने विद्यार्थी को नहीं, परीक्षक को पहले हाथो हाथ लिया. उनसे बोला कि आज से आप दाख़िला ले कर क्लास में बैठेंगे, पढ़ाई करने और वो जो better than examiner hai आपको पढ़ायेगा. परीक्षक-शिक्षक बेचारे नये थे, कुछ नहीं बोले, सिर्फ़ सुनते रहे.
अब बारी थी उस better than examiner की जो निरपेक्ष भाव से सब देख समझ रहा था.
प्रधान अध्यापक ने पूछा, क्या पूछा था तुमसे और क्या उत्तर दिया था उसका?
बालक ने सरल शब्दों में बता दिया,  प्रश्न पुछा गया था कि गीता में कितने अध्याय? जवाब था एक जोड़ अठारह भाग दो बराबर साढ़े नो।
जिसपर शिक्षक ने बिगड़ कर पुछा था , तुमसे क्या गणित पुछा जा रहा जो औसत निकाल रहे?
तो जवाब दिया था , नहीं सर, क्षमा करें तो कुछ कहूँ।
जिसपर  शिक्षक ने बोला , बोलो !
तब कहा था  सर, भगवान नें जब अर्जुन से बोला था तब तो अध्याय एक ही था, अठारह तो योग बताये थे, हर योग को पब्लिशर/प्रकाशक नें अध्यायों में बाट दिया, व्यवहारिकता को ध्यान में रख कर।
तो सर ,यदि मैं सिर्फ एक बोलता तो आप फेल कर देते, अठारह कहता तो भगवान, इसी लिए सारे पत्ते खोल कर रख दिए थे , विद्यार्थी नें भोली आवाज़ में यहाँ भी उसी तरह हाथ जोड़ कर उत्तर दिया जैसे मौखिक परीक्षा में दिया था .
समझा इस नक़लची की हरकत, तुम नक़ल कर रहे ?  शर्ट कट में ब्रह्मांड का चक्कर लगा कर? अच्छा चलो, तुम्हें माफ़ कर दूँगा अगर तुम ये बता दो कि किसने शॉर्ट कट लगाया था , जिसकी तुमने नक़ल उतरी?
गणेशजी सर, लेकिन नक़ल नहीं उतरी मैंने किसी की, वो तो आपके बोलने पर याद आया TV सीरीयल का वो एपिसोड जिसने गणेश जी तीन चक्कर लगा रहे थे जब कि उनके भाई पूरे ब्रम्हाण्ड की ख़ाक छान रहे थे.
समझा, TV देख कर जवाब दिया था गीता के अठारह अध्याय पर?
नहीं सर, मुझे किसी ने नहीं बताया कि कोई सीरीयल अठारह अध्याय पर भी चल रहा है, कौन से चैनल पर सर?
Shut up! तुम्हारा viva चल रहा है TV पर कोई चर्चा नहीं जिसमें तुम एक्स्पर्ट .
सारी सर, विद्यार्थी ने चुप्पी साधते हुए कहा.
फिर मार्क sheet पर नज़र दौड़ाते हुए प्रधान अध्यापक नें खिल्ली उड़ाते हुए कहा, अच्छा इस फ़ेल परीक्षार्थी को highest नम्बर दिया है? चलो तुम्हें पास मार्क्स देता हूँ, फ़ेल नहीं करूँगा, इस शर्त पर कि तुम फटा फट बोल दो , बिना हकलाये, गीता के अठारह अध्याय के नाम.
एक विषाद योग , दो सांख्य योग , तीन  Karma Yoga
रुक , रुक , रुक .....    प्रधान अध्यापक गरजे, विद्यार्थी की धाराप्रवाह को ब्रेक लगते हुए , और ऑर्डर दिया कोने में दुबके बेचारे डाँट खाये शिक्षक को, देख क्या रहे आँखें फाड़ कर, जाइए दौड़ कर, ले आइये गीता, देखूँ तो कि कहीं यह नक़लची हमें धोखा तो नहीं दे रहा.
तपाक एक आवाज़ आयी मासूम सी, उस बच्चे की, 'लीजिए सर', और उसके हाथ में एक हथेली के नाप की गीता थी .
समझा समझा, ये तो सच में नक़लची है. आपने चेक किया था , जब मोख़िक परीक्षा ले रहे थे तब इसकी जेब में ये पुस्तक तो नहीं थी?
शिक्षक चुप थे, लेकिन बालक बोल पड़ा, थी सर, हर समय रहती है.
देखो इसकी धृष्टता, पराधनध्यापक ने कहा, पूछते हुए कि बताओ.........
(आगे और....)


बताओ.........
प्रधान अध्यापक कुछ कर्कश स्वर में पूछे ,
कौन देता है ? तुम्हें, तुम्हारे कर्मों का फल?
ख़ुद.........  , बालक नें मुँह खोला नहीं कि प्रधान अध्यापक बरस पड़े , ऐसे ,
'बदतमीज़ , मुझे क्या वो समझा है, कि बेवक़ूफ़ बना लोगे?', उन्होंने ऊँगली तान दी कोने में दुबके शिक्षक की ओर जिसे उन्होंने पहले ही डीमोट कर दिया था, शिक्षक से शिक्षार्थी बना देने का ऐलान कर के.
'सवाल पूरा हुआ नहीं, कि होंठ फड़ फाड़ने लगे'
आगे कहा, 
तुम्हें तीन विकल्प दे रहा हूँ, क्योंकि बच्चे हो. सही विकल्प चुनो. इसे कहते हैं अब्जेक्टिव क्वेस्चन. B.Ed. में पढ़ा था. बग़ल में बैठे परीक्षा नियंत्रक admiration की मुद्रा में होंठों पर हँसी बिखेर रहे थे , दुबके शिक्षक को देख, दाँत चबा चबा कर.
 उन्होंने विकल्प दिया, ऐसे,
१. कर्म फल हमें हमारा भाग्य देता है;
२.कर्म फल हमें भगवान देते हैं;
३.कर्म फल हमें कोई और देता है.
बोलो , १,२ या ३? प्रधान अध्यापक नें पूछा.
३, प्रॉम्प्ट उत्तर.






हथेली के नाप की गीता , बच्चें नें पॉकेट से निकला. अपने शिक्षक को, जो प्रधानअध्यापक की डाँट के बाद कोने में दुबके पड़े थे, दौड़ से बचाने. उन्हें गीता की एक कापी लाने का आदेश दिया गया था . प्रधानअध्यापक को सवालों की झड़ी जो लगानी थी, examinee better than examiner वाली रेटिंग को झुठलाने. 
तो प्रधानअध्यापक ने कुछ कर्कश स्वर में यूँ पूछा, बताओ ;
कौन देता है ? तुम्हें, तुम्हारे कर्मों का फल?

'ख़ुद......... ' , बालक नें पूरा मुँह खोला भी नहीं था कि प्रधान अध्यापक बरस पड़े , ऐसे :-
'बदतमीज़ , 
मुझे क्या वो समझा है, कि बेवक़ूफ़ बना लोगे?', 
उन्होंने ऊँगली तान दी कोने में दुबके शिक्षक की ओर जिसे उन्होंने पहले ही डीमोट कर दिया था, शिक्षक से शिक्षार्थी बना देने का ऐलान कर के.

'सवाल पूरा हुआ नहीं, कि होंठ फड़ फाड़ने लगे'

आगे कहा, 

तुम्हें तीन विकल्प दे रहा हूँ, क्योंकि बच्चे हो. 
सही विकल्प चुनो. 
इसे कहते हैं अब्जेक्टिव क्वेस्चन.
 B.Ed. में पढ़ा था. 
बग़ल में बैठे परीक्षा नियंत्रक admiration की मुद्रा में होंठों पर हँसी बिखेर रहे थे , दुबके शिक्षक को देख, दाँत चबा चबा कर!

 उन्होंने विकल्प दिया, ऐसे,

१. कर्म फल हमें हमारा भाग्य देता है;
२.कर्म फल हमें भगवान देते हैं;
३.कर्म फल हमें कोई और देता है.

इसके बाद प्रधान अध्यापक बोले,
अब बोलो ,
 १,२ या ३? 
प्रधान अध्यापक नें पूछा भी नहीं था पूरा, कि बालक चहक पड़ा, सरल भाव से,

तीन! सर!
 प्रॉम्प्ट उत्तर. लेकिन बिलकुल ग़लत, प्रधान अध्यापक उबाल पड़े, और पूछा, साबित करो, कहाँ लिखा है, किसने बोला ऐसा.

बालक बोला, साबित तो अभी का अभी कर दूँ , यदि आज्ञा दें तो.

तो करो! प्रधान अध्यापक नें कहा. 

बालक बोला, सर हम अभी तीन मंज़िले पर हैं. यदि यहाँ से कोई नीचे कूदे, तो यह उसका कर्म हुआ. उस कुदान का फल उसी के कर्म देंगे, कर्म यानी कुदान. तो सर मेरा उत्तर जिन्हें ग़लत लगता हो वो अभी के अभी छलाँग लगा कर देख लें कि फल उस कर्म का, छलाँग लगाने का, कौन देता है, भाग्य, भगवान या वही कर्म यानी तीसरे मंज़िल से लगाई गई छलाँग!
प्रधान अध्यापक और परीक्षा नियंत्रक एक दूसरे का मुँह ताक रहे थे, और कोने में दुबका डाँट खाया शिक्षक से शिक्षार्थी में डीमोटेड शिक्षक रीढ़ सीधी कर तन गया था और परीक्षार्थी-विद्यार्थी इंतज़ार कर रहा था अगले प्रश्न का जो मिनटों के इंतज़ार के बाद भी क्यों नहीं आ रहा, उसकी समझ नहीं आ रहा था.

(आगे और....)




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Saturday, 14 May 2016

धर्म यानी?
न रिलिजन , न सम्प्रदाय और न हि मँजहब!
जैसे , जुरिस्प्रूडेन्स यानी क़ानून का क़ानून या क़ानून का ग्रामर या क़ानून का विज्ञान या फ़लसफ़ा/दर्शन , क़ानून को दो ब्रॉड कैटेगॉरी में परिभाषित करता है. एक तो वो जिस कैटेगॉरी में आप भोतिक शास्त्र के सिद्धांतों को रखेंगे, जैसे newtons law. दूसरा जिसमें आप सिवल या क्रिमिनल प्रसीजर कोड को रखेंगे जिनके आधार पर न्यायालय चलते हैं.
ठीक वैसे ही, रिलिजन , सम्प्रदाय और मँजहब धर्म हैं जैसे newtons law भी क़ानून नहीं होते हुए भी क़ानून है, न मानव निर्मित और न न्यायालयों को चालित करने वाला, जैसे कि क़ानून की स्पेसिफ़िक परिभाषा से सम्मत क़ानून , penal code, transfer of property act, इत्यादि!
धर्म का असल अर्थ होता है प्रकृति. कम्प्यूटर की भाषा में इसे कहते हैं प्रॉपर्टी यानी गुण. 
गुण की पाराकाष्ठl और उन्हीं गुणों की सबसे कलुषित या नीच अवस्था या कहें अवगुणों की हद उसी की विपरीत अवस्था को दो बिंदु मान लें. इन्हीं दो बिंदुओं के बीच मनुष्य हों या कोई और जीव, कर्मों का सम्पादन जीवन में होता है. कर्मों का उत्कर्ष ही धर्म है , यानी धर्म कर्म की एक अवस्था का नाम है जिसे गुणी ज्ञानियों नें समय समय पर प्रिस्क्राइब किया है जो बन गया बिलीफ़ सिस्टम, यानी रिलिजन , सम्प्रदाय और मँजहब।
ये सारे नाम धर्म की परिभाषा के सबॉर्डिनट होते हुए भी धर्म ही कहलाते हैं जिसका मूल तत्व है प्रकृति के अनुरूप उत्कर्ष कर्म की प्राप्ति. 
कम्प्यूटर युग में इस बात को समझना आसान हो गया है किंतु हमारी दृष्टि यदि रिलिजन , सम्प्रदाय और मँजहब की चहारदीवारी से बाहर झाँक सकने के क़ाबिल हो तब न!

कम्प्यूटर की अपनी ख़ुद की प्रकृति, प्रॉपर्टी, कपैसिटी होती है, लेकिन कम्प्यूटर भी तो मात्र एक डिब्बा है, बिना उन आवश्यक सहायता के, जिसे हम हार्डवेयर , सॉफ़्ट वेयर , ऐक्सेसरीज़, अटैचमेंट , नेट कॉनेटिविटी आदि कहते हैं.
एक शुद्ध कम्प्यूटर की तुलना एक साफ़ सीधे सच्चे इन्सान से कर सकते है. इसकी आप कितनी भी प्रशंसा कर लें, जो प्रशंसा के योग्य है भी, तो भी इसकी उपयोगिता एक डिब्बे से ज़्यादा है क्या?
यानी, शुद्ध-साफ़ व्यक्तित्व प्रशंसा के योग्य हो सकता है लेकिन, उपयोगिता के बिंदु पर आप इसने कमी पाएँगे, हार्डवेयर , सॉफ़्ट वेयर , ऐक्सेसरीज़, अटैचमेंट , नेट कॉनेटिविटी आदि की.
यदि आपने इस अनैलॉजी को आत्मसात कर लिया, तो आपके लिए आसान हो जाएगा योग और तंत्र के सिद्धांत तथा विधाओं को समझना .  
ये विधाएँ जादू टोंना नहीं और न हि साँप सँपेरे का खेल. ये विधाए हैं उस कम्प्यूटर को manage करने का उपक्रम , जो मनुष्य को उस नीली छतरी वाले नें दिया है, जिसका उपयोग करने के बजाय हम उसे वाइरस ग्रसित करते फिरते हैं . 
ये विधाए बिलीफ़ सिस्टम नहीं, वैज्ञानिक सिद्धांतों के अनुरूप और कम्प्लाइयंट होते हैं.
 बिलीफ़ और assumption दो अलग मान्यताएँ हैं. पहला विज्ञान को मान्य नहीं, दूसरा है.
Assumption टेम्परेरी यानी अस्थायी बिलीफ़ को कहते हैं जो एक समय सीमा के अंदर साबित हो जाना चाहिए, अन्यथा उसे ख़ारिज कर दिया जाना चाहिए.
Algebra और geometry में assumption का यही फ़ार्मुला हम लगते हैं किसी फ़ॉर्म्युला या theorem को साबित करने . साबित हुआ तो उसे वैज्ञानिक मान्यता दी जाती हैं नहीं तो मान लिया जाता है कि सिद्धान्त ग़लत यानी अमान्य है.
योग -तंत्र उसी assumption के सिद्धान्त पर आधारित है, न कि किसी रूढ़िवादी बिलीफ़ सिस्टम पर.

That's not my cup of tea!

मैंने १९६३ में योग-तंत्र की सारी विधाओं को सिस्टमैटिक्ली सीखा था ख़ुद परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती से . क्रिया योग भी उनमें एक था.
मेरे सिस्टम में योग-तंत्र किसी गुप्त परम्परा का हिस्सा कभी नहीं रहा है. 
मेरा यह भी मानना है कि जो गुप्त है, वह महान परम्परा तो हो सकती है, पर विज्ञान कभी नहीं.
स्वामीजी के सानिध्य में योग-तंत्र को मैंने विज्ञान के रूप में आत्मसात किया है, जिसमें जो गुप्त है वह.......  That's not my cup of tea!