बात
पुरानी है पर आज अचानक याद आ गयी. तब मैं भागलपुर के सीऍमएस स्कूल के आठवी कक्षा
की परीक्षा दे रहा था. इनविगिलेटर के तौर पर जैसे ही पंडितजी प्रवेश किये कि
परीक्षा कक्ष में जैसे हड़कम्प मच गया, अफरातफरी में लड़के कक्षा से बाहर की ओर
झुण्ड में निकलने लगे, पता नहीं क्यों.
“ अरे हुआ क्या, कहाँ जा रहे हो”, मैंने भागते हुए अवनीश कि बांह पकड़ी और
पुछा.
“ अरे बुडबक देख नहीं रहे हो, पंडितजी इनवीजीलेशन
कर रहे हैं, एक भी चिट पकड़ा तो बस खैर नहीं” , उसने फुसफुसा कर मेरे कान में कहा.
दरअसल
हमारे संस्कृत टीचर पंडित विष्णुकांत झा बड़े गज़ब के व्यक्तित्व थे. बड़े शांत स्वाभाव
के और वाक्यों को तोड़ तोड़ कर समझा समझा कर
बोलने वाले, और मज़े कि बात यह कि वाक्य के अन्तिम दो तीन शब्दों को वे दुहरा तिहरा
कर बोला करते थे और उस में वे ज्यादातर चुटकी लेते हुए जम्हाई का तड़का लगाया करते थे
जिससे उनके शान्त और docileडोसाइल व्यक्तित्व का परिचय मिलता था. किन्तु वक्त
बेवक्त जब उनके हाथ कि छड़ी तडा ताड चलने लगती थी तो उनके व्यक्तित्व कि बदली
तस्वीर भी दिख जाती थी, जो अकारण नहीं हुआ करती थी. कोई पीछे की कतार में अशलील
किताब फोटो के साथ पकड़ा गया तो छड़ी चल जाती थी, कनेठी अलग से फाव में. सुनने में
आया था कि अगर परिक्षा कक्ष में चिट के साथ कोई पकड़ा गया तो छड़ी चलती नहीं थी.
पागलों की तरह बरसने लगती थी.
पंडितजी
सीन को तुरंत भांप गए, और बोले, “ सब लोग अच्छे से सुन लो, चोरी- नक़ल मना
नहीं है, नहीं है, नहीं है”.
लड़के,
अवनीश भी, रुक गए, और जो कक्षा के बाहर निकल चुके थे वे उलटे पाव कक्षा में वापस
उलट कर देखने लगे, कान पंडितजी के शब्दों पर केन्द्रित”.
पंडितजी
ने अपने रिपिटेटिव अंदाज़ में, जम्हाई का तड़का लगाते हुए, दोहराया, उपसंघार के साथ,
“नक़ल करना मना नहीं है, नहीं है, नहीं है”......
“मगर!”, (जम्हाई) “म.................गर!”.....
(जम्हाई).........
“पकडाना मना है”.
आज
पचास साल बाद मुझे पंडितजी क्यों याद आ गए? दर असल, आज सुबह मैंने प्रभात खबर के
मुख पृष्ठ पर जयश्री ठाकुर की तस्वीर देखी और साथ में समाचार देखा कि छापेमारी में
आय से ज्यादा सम्पत्ति के अपराध का उनपर अभियोग है. वे भागलपुर के एक पुराने
परिवार से सम्बन्ध रखती हैं. कोई छः साल पूर्व मेरा उनके साथ दो यादगार एनकाउन्टर
हुए, जब वे डीसीएलआर के पद पर प्रतिस्थापित थीं.
पहला
एनकाउन्टर एक नीलाम पदाधिकारी के हैसियत से हुआ, देनदार के अधिवक्ता के रूप में.
मेरे
देनदार मुवक्किल पर वारंट जरी कर दिया गया था जब कि उनपर सम्मन सर्व हुआ ही नहीं
था. वारंट जरी करना सरासर गलत था, हलाकि ऐसी सरासर गैर कानूनी हरकत कार्यपालक
पदधिकरियों के लिए आम बात होती है क्योंकि उनके ऐसे गैर कानूनी हरकतों को देखने
रोकने वाला कोई है नहीं. उपचार नहीं है ऐसा नहीं है किन्तु उपचार कि तलाश में
निकला व्यक्ति ज्यादातर कानूनी भूल भुलय्या में खो जाते हैं और ज़ख्म नासूर बन कटा
है. इन बातों का ज्ञान जितना नीलाम पदाधिकारीयों को होती है उतना शायद वकीलों को
नहीं होती.
तो
हुआ यूँ कि मैडम के समक्ष मैंने उचित आवेदन
संचालित किया और निवेदन किया कि रिकॉर्ड से पता चलेगा कि आज तक सम्मन सर्व नहीं
हुआ है अतः वारंट रिकॉल किया जाये और देनदार के ऑब्जेक्शन पर सुनवाई की जाये.
“मुद्दालय कहाँ है?”,
जयश्री मैडम आंख लाल
कर कुछ ऊंचे स्वर में पूछीं. यह वही अंदाज़ था जिस अंदाज़ से न्यायिक दंडाधिकारी
पूछते हैं जब मुद्दालय की बेल याचिका मूव की जा रही हो, क्योंकि तब मुद्दालय को हाज़िर रहना पड़ता है, और जब तक
न्यायालय फैसला नहीं सुना दे, और उसके बाद भी जब तक बेल बांड स्वीकृत न हो जाये, तब तक मुद्दालय न्यायिक हिरासत में होता है, पसीने से
लथपथ इस असुरक्षा में कि कहीं उसे जेल योग तो नसीब नहीं होने वाला है. यह वही असुरक्षा
है जो मुवक्किल को जेबें ढीली करने के लिए मजबूर नहीं भी तो प्रेरित अवश्य करती
हैं.
जयश्री
मैडम को शायद इसी प्रेरणा कि अपेक्षा थी, किन्तु उन्हें मैंने कानूनी बकवास कर के
अचम्भित कर दिया. यह मामला हाई कोर्ट चला गया जहाँ मेरे मुवक्किल ने रिट याचिका
दायर किया जिसकी सुनवाई हो उसके पहले ही मामले को कोम्प्रोमाँइज कर लिया गया.
दूसरा
एनकाउन्टर तब हुआ जब मुझे एक ज़मीन बिक्री के मामले में विक्रेता के अटॉर्नी कि
हैसियत से मैडम का नोटिस मिला कि क्यों नहीं मेरे द्वारा निर्गत पंजीकृत विक्रय
पत्रों को इस कारण निरस्त कर दिया जाये क्योंकि वोह सम्पत्ति पहले से मॉर्गेज राखी
हुई है. करीब करीब ऐसा ही एक और एडीऍम ने
निर्गत कि थी.
इसका
समुचित उत्तर दाखिल किया गया, जिसमे सर्वप्रथम दो बिन्दुओं को हाई लाइट किया गया.
पहला
तो यह कि आप किस अधिकार या कानून के तहत कार्यवाई कर रहे हैं या दस्तावेज़ निरस्त करने की चेतावनी दे रहे हैं?
दूसरा
कि क्या सम्पत्ति अंतरण अधिनियम कि धरा ५६ इस बात की मंजूरी नहीं देता कि मॉर्गेज
में अवस्थित सम्पत्ति का हस्तारान्तरण किया जा सकता है जिससे मॉर्गेजी को कोई अंतर
नहीं पड़ता क्योंकि उसका हक बरक़रार रहता है, बाबजूद इसके कि मिलकियत बदल गयी पर
सम्पत्ति फिर भी मॉर्गेज रहेगी. अलावे
इसके, और भी मुद्दे उठाये गए.
यह
एक संयोग ही था कि उपरोक्त दोनो ही एनकाउन्टर के मौके पर जयश्री मैडम के साथ एक वरीय अधिवक्ता मौजूद थे जो मेरे प्रोफेशनल
मित्र थे और हैं. एक दिन अचानक उन्होंने जयश्री मैडम के साथ घटित मेरे दोनों एनकाउन्टर
कि चर्चा चेर दी. उन्होंने आश्चर्य जताया कि इतने अनुभवों के बाबजूद मैं जयश्री मैडम
के समक्ष इतना संजीदा कानूनी तर्क पेश कर रहा था जो भैस के आगे बीन बजने जैसा था.
उन्होंने मुझे सलाह दी कि ऐसे पदाधिकारीयों की मजबूरी को मुझे समझना चाहिए.
कैसी
मजबूरी भाई ? मैंने पूछा.
उन्होंने
मुझे बताया कि यह जग ज़ाहिर है कि लालूजी के ज़माने से ही, सारे मलाईदार पद नीलाम हो
जाते हैं. जय श्री ठाकुर जैसे कई बोली लगाने वाले होते हैं. पदस्थापित होने के
पहले जेबे ढीली हो चुकी होती हैं जिसकी पहले भरपाई होती है और फिर छाली कटाई.
तो
मेरे मित्र कि सलाह यह थी कि यदि काम करना है तो इस बात को समझें अन्यथा मुक़दमे पर
मुकदमा लड़ते रहे.
उन्होंने
सही फ़रमाया था. समाधान तो आज तक हुआ नहीं, हाँ मुक़दमे बढ़ गए या मामला बाहर बाहर
तस्फिया कर लिया गया.
तो
बात वापिस वहीँ पर कि मुझे पंडितजी कैसे याद आये.
पंडितजी
इस लिए याद आए क्योंकि जयश्री ठाकुर को पंडित जी का वह जुमला पता नहीं था, “नक़ल करना मना नहीं है, पकडाना मना है”. नीलाम में मिली कमाई का अधिकार इस राज
में तब तक प्रशस्त है जब तक कि तुम पकडाए नहीं. यानि पकड़ाना मना है, न कि चोरी
करना.
On the lighter side ---( read the humour on corruption) :-
ReplyDeleteदो दोस्त आपस में राजनैतिक भ्रष्टाचार पर गॉसिप कर रहे थे...
एक भारतीय था, तो दूसरा अमेरिकी।
अमेरिकी दोस्त: यार, हमारे यहां तो इतना भ्रष्टाचार है कि उसकी बुरी हवा से अब वाइट हाउस भी पीला पड़ने लगा है।
भारतीय दोस्त: यह तो कुछ भी नहीं! हमारे मनमोहन जी के शासन में तो भ्रष्टाचार का यह हाल है कि 10 रुपए के चिप्स के पैकेट में 3-4 रुपए के ही चिप्स मिलते हैं और बाकी की हवा।