एक दुखी परिवार – १
एक दुखी परिवार है. मै जब से होश संभाला तब से देख रहा हूँ. मेरा जन्म स्वतंत्रता के दो वर्षो के बाद हुआ , अतः पचास के दशक की सेकंड हैण्ड जानकारियाँ ही मेरे पास है जो सुन पढ़ कर प्राप्त होते हैं.
तो मैं उस दुखी परिवार की बात कर रहा हूँ जिसकी हनक हमने बचपन में देखी है , पैसो से, ४-५ मोटर गाडियो से, हर किसी के हाथ चमकते कीमती घडियो से, जेब में नोटों से भरे बटुए से , फ्रिज में हर वक्त ठन्डे पेय और बियर शराब की उपलब्धता से, गर्मियों में शाम होने के बाद आँगन –फुलवारी में लगे कुर्सियों-कूलरों से , जगह – जगह पाव दबाते नौकरों-नौकरानियो से , और भी जाने क्या क्या जिसका बयान करना शायद उचित ना हो.
उस परिवार की दयनीय अवस्था तब देखने को मिली जब ८० के दशक में परिवार को खाने पीने के भी लाले पद गये.
उक्त परिवार के छिन्न भिन्न होने के लक्षण ८० के दशक में शुरू हो गये , तब मेरी जिज्ञासा जगी कि यह गज़ब कैसे हो गया.
परिवार के सदस्यो में एक काफी सुलझा व्यकि था जिसने अपनी राह अलग बना ली थी. किन्तु उनके पिता जो परवर के मुखिया थे, उनको अपने पुत्र का अलग रवय्या बिलकुल नापसंद था. बाबजूद इसके उनका वो पुत्र, अपनी अलग पहचान बनाये रखा, और परिवार से उसका सम्बन्ध कटता चला गया.
उसे समाज ने नापसंद किया. उसने परिवार – समाज में अपनी चेष्टा जरी रखी , इस एहसास को सब के ज़हन में डालने की कि ज़िन्दगी कर्म करने से बनती है ना कि पूर्वजो के सुकर्मो के फल को भोग बनाने से.
तब वाद विवाद का सिलसिला प्रारम्भ हो गया, जिसका मै गवाह बना.
So far, it was fine for me to express, but here onwards, I need to discuss something intricate. Confusions may arise, if exact expressions are not used, which Hindi as a language is rich enough to facilitate, but depravity lies in the user, hence pardon is solicited.
(More to follow)
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