Tuesday 16 July 2013


Another reaction has come from Mrs. Mukul Das, who lost her husband in an accident. She was sitting in the car parked by the road side, her husband on the driving seat. The car was yet to push off, a speeding truck dashed. Her husband died on spot, she fell unconscious and the car was smashed. Mrs Das was airlifted from Ranchi to mumbai. She survives and endures the disability thus caused, he two legs underwent surgical operations.
The ranch Court repeatedly sought her attendance as witness in the case, refusing to allow her disability plea which merits examination on commission or even by video conferencing. Ultimately, unable to endure repeated calls by the issuance of arrest warrants, Mrs. Das had to take a flight from mumbai to Ranchi and appear in the court which overlooked her disability plea. Mrs. Das has been inspired by the 'ordeals that stare', and hereby contributes her write up, joining this blog as a Commoner in distress.
Thus goes her response:-

क़ानून एक एनबूझ पहेली है।जीवन भर व्यक्ति इसके दाँव पेंच में फँसा रहता है। मुझे न जाने कितने पापड़ बेलने पडे ़़़़हैं । याद आता है वो हादसा जिसमें मैंने अपना सबकुछ खोया । वो एक कार दुर्घटना थी । मेरे पति ही चला रहे थे ।किसी गाड़ी ने टकक्कर मारी ,जिसमें मैं तो उपर से नीचे तक अपने शरीर  की सारी हड्डीयाँ तुड़वा चुकी थी । पति ने न जाने कब आख़री साँस ली वो आज तक किसी को पता नहीं चल पाया है ।जीवन के सारे फ़लसफ़े  हाथों की उँगलियों की दरारों के बीच से रेत की मानिंद फिसल कर जब धरातल पर आये,तब तक सब कुछ लुट  चुका था । मुझे याद नहीं  मैं किस तरह  हवाई  जहाज़ द्वारा मुंबई  लाया गयी । तब कहाँ  पता था कि मैं कब की कानून के दायरे में आ चुकी हूँ । मैं यहाँ हीरानंदानी अस्पताल में जीवन से जूझ रही थी । वहाँ दूसरी आोर राँची  के मेरे मकान पर मेरे नाम का वारंट आ रहा था । लाख  मेडिकल सर्टिफ़िकेट  भेजे  जाने के बाद भी  कोट मानने को तैयार कहाँ था कि मैं उठ के बैठ भी नही सकती हूँ । कोट को मेरी गवाही चाहिये थी कि मैं उस हादसे के समय गाड़ी  में मौजूद थी । हम आग्रह कोट से करते रहे कि आप लोग ही किसी को भेज दीजिये  जो यहाँ आकर  मेरी गवाही ले सके , पर कोट कहाँ मानने को तैयार था । बार,बार वारंट आता रहा । ये कहाँ का न्याय  है । मैं  आज तक समझ नहीं पाई कि क़ानून के लिये क्या  सच क्या  झूठ । जिस व्यक्ति ने जीवन में कभी भी कानून के तहत लपेटा जाना,वारंट जैसी चीज़ों का सामना करना न जाना हो,जिसे आज तक किसी  ने इतना अपमानित न किया हो ,वो कैस अपनी सच्चाई  साबित करे ।क्या कानून के तहत कोइ ऐसा रास्ता  है। अब तो मेरे जीवन में कानून की परिभाषा  का कोइ मोल ही न रहा ।आज दामिनी का इतना बड़ा कांड कानून की खुली आँखो ं के सामने हुआ पर अगर फ़ैसले में कुछ सालों की सजा ही मंज़ूर  होती है तो क्या ये फ़ैसला  जायज़ था या है। कानून के दायरे मेंअगर सालों साल किसी निर्णय  को आने में लग जायें,उस बीच उसका सब कुछ दाँव पर लग जाता है,यानि वो ग़रीबी के दायरे में सिमट कर रह जाता है । ये कानून का कैसा चेहरा है ।आज तक जो मैंने देखा है दोषी आराम से बाहर घूम रहे अौर निर्दोष जेल में चक्की पीस रहे हैं ।पहली बार ऐसा सुनने में आया है कि दोषी कहे जाने वाला व्यक्ति कोई चुनाव नहीं लड़ सकता है,नहीं तो आज तक सारे के सारे अपराधी  संसद में भरे पड़े थे ।ये कैसा देश है ।मुझे कानून के विषय में इससे ज़्यादा  कुछ भी नहीं कहना है ।

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